भारत कैसे कोरोना के कारण पैदा हुई वैश्विक मंदी की स्थिति से खुद को बचा सकता है

    सामाजिक दूरी कोरोना के खिलाफ सबसे कारगर उपाय है लेकिन इससे दुनिया की अर्थव्यवस्था की हालत और अधिक बिगड़ेगी. हालांकि भारत कई अन्य विकासशील देशों के मुक़ाबले बेहतर स्थिति में है. कोरोना महामारी के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आ गई है. दुनिया भर के कई देशों में लॉकडाउन लागू है जिसकी बुरी मार अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रही है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने कहा है कि यह मंदी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट के कारण 2009 में आई मंदी के मुक़ाबले बदतर होगी. हालांकि निर्यात पर कम निर्भरता और सामाजिक दूरी के उपायों को शीघ्रता से लागू करने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन शायद कुछ अन्य विकासशील देशों की तुलना में अच्छी रहे. सर्वप्रथम मौजूदा दौर में अर्थव्यवस्था के बारे में की जानी वाली भविष्यवाणियों की सीमाओं को समझना होगा.



  प्रतीक तस्वीर-कामिनी साहू (मॉडल)


    अर्थशास्त्रियों को स्थिति में त्वरित या वी-शेप्ड सुधार की उम्मीद बहुत कम दिखती है और उन्हें लगता है कि मंदी का असर लंबे समय तक रह सकता है. हालांकि उनके पूर्वानुमान अलग-अलग हैं जो नोवेल कोरोना के प्रसार की वास्तविक स्थिति पर निर्भर करेंगे जैसे आईएमएफ के विशेषज्ञों का अनुमान है कि अर्थव्यवस्था 2021 तक वापस संभल सकेगी या उसकी रिकवरी हो सकेगी, बशर्ते दुनिया के देशों को कोरोना पर काबू पाने तथा दिवालियेपन और छंटनियों को रोकने में सफलता मिलती हो. उम्मीद की जा रही है कि बीसीजी जैसे वर्तमान में प्रयुक्त टीकों में से कोई हमें वायरस के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता दे सकेगा, साथ ही अन्य बीमारियों के लिए काम आने वाली 69 दवाओं से भी उम्मीद लगाई जा रही है.
    टीके के ज़रिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित करना-इस समय दुनिया भर का वैज्ञानिक समुदाय कोरोना पर नियंत्रण के उपायों को लेकर अनुसंधान में जुटा हुआ है लेकिन आमतौर पर इस बात पर सहमति है कि टीके के विकास में 12 से 18 महीने लग सकते हैं. ब्रिटेन जैसे देशों ने ‘नियंत्रण’ की रणनीति अपनाकर वायरस के फैलाव की गति को कम करते हुए आबादी में सामूहिक प्रतिरक्षा या हर्ड इम्युनिटी विकसित करने की कोशिश की लेकिन जल्दी ही उनकी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए संक्रमण के मामलों को संभालना कठिन होने लगा और उन्हें यह रणनीति छोड़नी पड़ी. वहीं कई देशों में इस समय जारी वायरस के दमन की रणनीति के तहत आबादी के बड़े हिस्से में सामूहिक प्रतिरक्षा क्षमता विकसित नहीं हो सकेगी क्योंकि प्रयास अधिकतम लोगों को वायरस से बचाने पर केंद्रित हैं. कोई टीका नहीं होने के कारण जब लॉकडाउन हटेगा तो नए मामले सामने आ सकते हैं क्योंकि वायरस श्रृंखला पूर्णतया टूटने की संभावना नहीं है. सरल गणितीय मॉडलों के अनुसार यदि लॉकडाउन हटता है और सामाजिक दूरी के उपाय लागू नहीं रहते हैं तो 100 में से करीब 80 व्यक्तियों के स्वस्थ और रोग-प्रतिरोधी रहने की संभावना है जो बाकी 20 लोग बीमार पड़ेंगे, उनमें से 5 को अस्पताल में भर्ती कराने की नौबत आ सकती है. यदि इन पांचों के लिए अस्पताल की सुविधा तैयार कर सकें, तो उनमें से चार की जान बच जाएगी. यदि सामाजिक दूरी बनाए रखने के कुछ उपाय किए जाते हैं तो वायरस के प्रसार की गति धीमी पड़ सकेगी जबकि अस्पतालों की व्यवस्था कर  बीमारों को स्वास्थ्य लाभ में मदद कर सकते हैं.
    चूंकि अस्पतालों में भर्ती होने वालों की संख्या बढ़ने का अनुमान है इसलिए शटडाउन के एक और दौर की ज़रूरत पड़ सकती है. इसके परिणामस्वरूप अधिकतम रोगियों वाली स्थिति में सुधार (फ्लैटनिंग ऑफ द कर्व) से स्वास्थ्य सेवा पर सहनीय स्तर का ही दबाव रहेगा और रोगियों की देखभाल की जा सकेगी. संभव है कि वायरस निष्क्रिय होकर हमारे बीच मौजूद रहे और मौसम विशेष में दोबारा सक्रिय हो इसलिए दीर्घावधि में यह महत्वपूर्ण है कि आबादी में इसके खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो इसलिए अनेक चरणों में लॉकडाउन लागू करना आवश्यक हो सकता है. इसके अलावा सभी देशों में वायरस का एक जैसा प्रसार नहीं है इसलिए वैश्विक व्यापार और यात्रा को लेकर समन्वय की आवश्यकता होगी. चीन और अमेरिका की अर्थव्यवस्थाओं में संकुचन का प्रभाव-वैश्विक अर्थव्यवस्था के विकास में सर्वाधिक योगदान करने वाले देशों में से एक चीन की जीडीपी में संकुचन तय है और अब अमेरिका में कोरोना के तेज़ फैलाव के मद्देनज़र उसकी अर्थव्यवस्था में भी संकुचन दिखेगा.
चीनी अर्थव्यवस्था के आरंभिक संकुचन के अनुमानों में आपूर्ति श्रृंखलाओं और उत्पादन में व्यवधान जैसे कारकों को शामिल किया गया है. अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप जैसी अर्थव्यवस्थाओं में लॉकडाउन और चीनी निर्यात के ऑर्डरों के रद्द होने की आशंका को देखते हुए संकुचन कहीं अधिक व्यापक हो सकता है. मौजूदा दौर में अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अभूतपूर्व व्यवधान आने की आशंका है. लॉकडाउन के वर्तमान स्तरों पर वैश्विक जीडीपी में 15 प्रतिशत तक संकुचन हो सकता है. अधिकांश अर्थशास्त्रियों को भारी अनिश्चितता की वर्तमान स्थितियों के तहत मांग और पूर्ति के एक-दूसरे पर पड़ने वाले भारी दबावों की चिंता है. लॉकडाउन के कारण व्यवसायों को अपनी सेवाओं के लिए उपभोक्ता नहीं मिलता है जो आरंभ में पूर्ति संबंधी झटका साबित होता है जैसे-जैसे श्रमिकों और उद्यमियों की आय घटने लगती है उनकी तरफ से मांग कम हो जाती है और मांग में इस कमी से और भी बड़ी संख्या में व्यवसायों की आय कम होती है और ये चक्र जारी रहता है. कई अर्थशास्त्रियों को लगता है कि जीडीपी पर मांग में कमी का असर पूर्ति संबंधी झटके के मुक़ाबले कहीं अधिक दिखेगा.
    यदि लॉकडाउन के कारण एक महीने में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में 50 प्रतिशत की गिरावट होती है और उसके बाद के दो महीनों में सीमित आर्थिक गतिविधियों के कारण अतिरिक्त 25 प्रतिशत की कमी होती है, तो जीडीपी में 10 प्रतिशत की गिरावट आएगी. इस समय स्वास्थ्य और ज़िंदगी सर्वोच्च प्राथमिकता हैं और सामाजिक दूरी रखना सबसे कारगर उपाय है भले ही अर्थव्यवस्था पर इसका बहुत विपरीत असर पड़ता हो. भारत की स्थिति-हालांकि भारत को बड़ी आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा पर भारतीय अर्थव्यवस्था शायद उन विकासशील देशों की तुलना में अच्छी स्थिति में रहे जो विश्व व्यापार पर पूरी तरह निर्भर हैं. निर्यात पर कम निर्भरता का मतलब है विश्व व्यापार में गिरावट का सीमित प्रभाव. इस तथ्य और हमारे सबसे बड़े आयात कच्चे तेल की कम कीमत के मद्देनज़र संभव है कि हमारी अर्थव्यवस्था बाह्य झटके से बच जाए.
    जहां तक नीति की बात है तो भारत ने महामारी के प्रसार के शुरुआती दिनों में ही लॉकडाउन घोषित कर दिया था इससे कोविड-19 के मरीजों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को तैयार करने के लिए अतिरिक्त समय मिल गया. साथ ही दुनिया भर में वैज्ञानिकों द्वारा किए जा रहे अध्ययनों का भी फायदा मिला है. यदि आपूर्ति श्रृंखला को कायम रखा जाए और धीरे-धीरे देश को पटरी पर वापस लाने के लिए अगले कुछ महीनों तक सामाजिक दूरी की किसी योजना का यथासंभव पालन किया जाए तो गर्मियों के इस मौसम में ही आशा की किरण दिख सकती है.